छत्तीसगढ़ में वन, पर्वतों, गिरि-कन्दराओं, नदी-नालों, विशालकाय साल के पेड़ों से आच्छदित, गुफाओं व विभिन्न देव स्थलों से सुशोभित एक भूखण्ड है- सरगुजा। यहाँ के मूल निवासी जो पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं- कोडाकू, कोरवा, सौंता, माझी, मझवार, बैगा आदि हैं। और मैदानी इलाके में रहने वाली जनजातियाँ हैं- उरांव, कंवर, रजवार, पनिका, नगेसिया, बरगाह आदि। सरगुजा की इन मूल निवासियों के प्रमुख त्यौहार छेरता, करमा, पितरपख, नावाखाई है। करमा में माँदर की थाप गिरि कन्दराओं में जिस दिन गूंजेगी लगभग उसी दिन मैदानी इलाकों में भी माँदर की थाप गूंजेगी। पूरा सरगुजा चावल से वनी शराब हड़िया से झूमता नजर आयेगा। बाल, जवान वृद्ध करमा त्यौहार के उल्लास में मस्त रहते हैं।
इसी प्रकार पूस की पूर्णिमा को छेरता का त्यौहार मनाया जाता है। लोग इसी दिन को साल का अंतिम त्यौहार मानते हैं और छेरता के बाद नया काम प्रारंभ किया जाता है। पहले सरगुजा में बहुत ग़रीबी थी। लोग साहूकारों के पास ‘हरवाही’ माढ़ते थे। चाहे वो जिस दिन से भी हरवाही माढ़ेगा उसका अंतिम दिन छेरता ही होगा। लोग बेटा-बेटी की शादी के लिए साहूकारों से रूपया लेते थे। और उसके एवज में साल भर हरवाही (नौकरी) माढ़ते थे। उस हरवाही का अंतिम दिन यही छेरता होता था। यानी मुक्ति दिवस।
इस पर्व पर बच्चे हफ्ते भर से घर-घर जाकर ‘लोकड़ी’ खेलते हैं। उसके बदले में गृहस्वामी उन्हें भरपूर पैसा, चावल, या धान देता है। उन सबको इकट्ठा करके किसी नदी या नाले के किनारे जाकर छेरता मनाते हैं। नदी किनारे बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते हैं, खाना बनाते हैं, खाते हैं और शाम को घर वापस आ जाते हैं।

Image: Children gathered to commence the festival of Chheri Chhera/छेरी छेरा का त्योहार शुरू करने के लिए एकत्रित बच्चे. Photo Credit: Rohit Rajak.

Image: Children lined up in front of a house to receive grains/बच्चे अनाज प्राप्त करने के लिए एक घर के सामने पंक्तिबद्ध. Photo Credit: Rohit Rajak.

Image: Children receiving grain from a house lady on the occasion of Chheri Chhera/छेरी छेरा के अवसर पर घर की महिला से अनाज प्राप्त करते बच्चे. Photo Credit: Rohit Rajak.

Image: A girl receiving grain on the occasion of Chheri Chhera/छेरी छेरा के अवसर पर अनाज प्राप्त करती हुई एक लड़की. Photo Credit: Rohit Rajak.

Image: Woman holding a grain basket to be distributed among children on the occasion of Chheri Chhera/छेरी छेरा के अवसर पर बच्चों के बीच बांटी जाने वाली अनाज की टोकरी के साथ एक महिला. Photo Credit: Rohit Rajak.
पहले लोग खेती स्वयं करते थे। या परिवार के साथ मिलजुल कर करते थे। खेत की रोपाई, कटाई, मिसाई परिवार के साथ करते थे। पूस के आते तक वे बेदम थक जाते थे। पैरों में बिवाईयाँ आ जाती थी। हाथों की उँगलियाँ फट जाती थी। चेहरों में झुर्रियाँ आ जाती थीं। संभवतः जीवन में नयापन व उमंग लाने के लिए पूस में छेरता का त्यौहार रखा गया होगा। क्योंकि इस समय तक सारी फ़सलें कट चुकी होती हैं।
सरगुजा में आज भी पुरानी परम्परा के अनुसार खेती की जाती है। अधिकांश खेत पहाड़ों की तराई में है। जहाँ प्राकृतिक खाद जो फूल, फल, पत्तों की बनी है, खेतों को मिलती है। यहाँ की प्रमुख फसल धान है। और तिलहनी में सरसों व जंटगी जो बाड़ी या गोड़ा में बोई जाती हैं। जो पूस तक पक कर तैयार हो जाती हैं। मांस के लिए यहाँ के मूल निवासी बकरी, बकरा पालते हैं। घरों के मुँडेरों पर कबूतर पालते हैं। ओसारे में मुर्गा, मुर्गी पालते हैं। मछली खाने का मन हुआ तो जाल उठाये नदी में चले जाते हैं, और मछली मार लाते हैं। और छेरता के दिन चावल का आटा, जटंगी के तेल, घर की कारी पाठी या करिया मुरगी को मार कर त्यौहार मनाते हैं। चावल के आटे से बनी पूरी जिसे ये लोग चिपरी कहते हैं, वह भी इस दिन बनाई जाती है।
इस प्रकार घरेलू और स्थानीय उत्पाद का ही उपयोग करने की वजह से इस त्यौहार में लोगों का खर्चा नगण्य होता है। चावल का आटा घर में, तेल जंटगी या सरसों का घर में, मुर्गा या बकरा घर का, चावल का हंडिया भी घर का बना होता है। हालांकि नयी पीढ़ी अब छेरता में ख़ूब खर्च कर रही है और आयातित सामान भी खरीद रही है। अपनी पारंपरिक विशेषताओं और बदलावों के साथ छेरता इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण लोकोत्सव बना हुआ है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.